– किसे जीत की खुशी और किसे करना पड़ेगा हार का सामना इसका पता मतगणना के बाद ही होगा
– जीतने के लिए सभी ने की जोर आजमाइश किंतु जनसामान्य से जुड़े मुद्दों ने फर्रुखाबाद में भी मतदाताओं को किया प्रभावित
फर्रुखाबाद 21 फरवरी
वैसे तो पिछले 1 साल से ही चुनावी चर्चाएं शुरू हो गई थी। इस बीच किस पार्टी से कौन होगा उम्मीदवार के कयास लगाए जा रहे थे । इसी बीच यह खबर भी खासी चर्चा मैं आ रही थी कि सत्ताधारी पार्टी भाजपा अपने कुछ वर्तमान विधायकों का टिकट काटकर नए चेहरों पर दाव लगा सकती है। किंतु बदली राजनीतिक परिस्थिति के कारण पूरे जनपद फर्रुखाबाद की 4 सीटों पर तीन चेहरे पुराने उतारे गए। वही आरक्षित 192 विधानसभा क्षेत्र कायमगंज में बीच का रास्ता अपनाकर भाजपा ने वर्तमान विधायक अमर सिंह खटीक के स्थान पर चेहरा बदलते हुए साथ ही पार्टी नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की नाराजगी को उभरने से रोकने के लिए अपना दल प्रत्याशी के रूप में भाजपा समर्थित उम्मीदवार डॉक्टर सुरभि को चुनावी मैदान में उतार दिया। इस तरह अपनी रणनीति से सभी क्षेत्रों में पार्टी उम्मीदवार पूरे दमखम के साथ चुनावी मैदान में ताल ठोकते नजर आए। वही मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी गठबंधन ने कायमगंज सीट पर पूर्व दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री सर्वेश अंबेडकर को अपना प्रत्याशी घोषित कर फर्रुखाबाद सदर सीट पर नया चेहरा महान दल की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सुमन मौर्य शाक्य तथा अमृतपुर सीट पर भी नया चेहरा डॉ जितेंद्र सिंह यादव एवं भोजपुर सीट पर पिता की राजनैतिक विरासत संभालने वाले अरशद जमाल सिद्दीकी सहित सभी नए चेहरों को चुनावी मैदान में उतार कर नए सियासी गणित का खाका तैयार करने की कोशिश की। नामांकन के बाद दोनों दलों में असंतोष भी देखने को मिला। जिसमें सपा के पूर्व विधायक नरेंद्र सिंह यादव जो 6 बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके थे ।अमृतपुर विधानसभा से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव में कूद पड़े। इन्होंने शुरुआत में तो सपा की मुश्किलें काफी हद तक बढ़ाई। लेकिन कुछ दिन के बाद ही क्षेत्र की जनता मुंह मोड़ने लगी। जिसके चलते बहुत से ऐसे गांव जहां नरेंद्र सिंह यादव को बेहद सम्मान मिलता रहा। उन्हीं स्थानों पर जनता की नाराजगी झेलनी पड़ी इतना ही नहीं कुछ जगह तो उनके समर्थकों एवं परिवार के सदस्यों तक को जनता ने खदेड़ने तक की नौबत देखने और समझने के लिए विवश किया। रही सही कसर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव के द्वारा 16 फरवरी को फर्रुखाबाद में चुनावी सभा के बाद पूरी हो गई । इस तरह विरोध एवं भितरघात से तो सभी पार्टी के प्रत्याशियों को दो-चार होना पड़ा । यह अलग बात है । किंतु सत्ता विरोधी लहर, वही बदली परिस्थितियों में मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण भी इस बार के विधानसभा चुनाव में हावी होता नजर आ रहा था । वही बे गैर यादव पिछड़ी तथा अति पिछड़ी जातियां जो 2017 के चुनाव में पूरी दमखम के साथ भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में दिखाई दे रही थी। उन जातियों में से शाक्य मौर्य पाल आदि और बहुत सी जातियों ने इस बार के चुनाव में नया रास्ता चुनते हुए समाजवादी पार्टी की ओर अपना रुझान दिखाया। भले ही पूरा न सही लेकिन काफी हद तक इन जातियों का मत प्रतिशत सपा की ओर जाने से भाजपा का गणित बिगड़ता नजर आ रहा है। भले ही इन जातियों के जाने का कारण इनके स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं का भाजपा से अलग होना रहा हो, लेकिन खाद बीज महंगाई बेरोजगारी अन्ना पशुओं जैसी समस्याओं के कारण भी खेती किसानी से जुड़ी यह जातियां काफी परेशान थी। और इन समस्याओं के लिए बे सीधे भारतीय जनता पार्टी को ही जिम्मेदार मानकर चल रही थी। यही कारण है कि इनके वोट प्रतिशत का सपा की ओर जुड़ना पार्टी के लिए अच्छा संकेत माना जा रहा है। उदाहरण के लिए फर्रुखाबाद सदर सीट पर भाजपा प्रत्याशी मेजर सुनील दत्त द्विवेदी जिन्हें पिछले चुनाव में कुर्मी कटियार शाक्य का एकमुश्त वोट मिला था। इस बार बसपा प्रत्याशी विजय कटियार तथा सपा महान दल की संयुक्त प्रत्याशी सुमन शाक्य के चुनाव मैदान में आने से यहां का चुनावी दंगल त्रिकोणी होने के साथ ही भाजपा प्रत्याशी के लिए चुनौती साबित हो रहा है। बात भोजपुर की कीजाए तो यहां भी पिछड़ी जातियों का वही वोट प्रतिशत जो पहले भाजपा प्रत्याशी नागेंद्र सिंह को जिताने के लिए आगे आया था ।इस बार भाजपा से हटकर सपा प्रत्याशी अरशद जमाल सिद्दीकी के पक्ष में जाने के संकेत दे रहा था। जबकि सपा का परंपरागत बोट पहले की तरह मजबूती से पार्टी के साथ आखिर तक डटा रहा। वही पूरे जनपद में शहरी पोलिंग बूथों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्र के मतदान केंद्रों पर अधिक वोट पड़ना भी सत्ताधारी दल के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहा है । क्योंकि शुरू से ही भाजपा का असर ग्रामीण क्षेत्रों की बजाए शहरी क्षेत्रों में अच्छा खासा रहा है । इसके इतर सपा का घोषणा पत्र जिसमें बेरोजगारी दूर करने 300 यूनिट बिजली फ्री तथा किसानों के लिए सिंचाई में उपयोग की जाने वाली बिजली मुफ्त एवं आवारा पशुओं से निजात दिलाने जैसे वादो का असर भी ग्रामीण क्षेत्रों में काफी हद तक कारगर होता दिखाई दिया । यदि स्थानीय रूप से चुनाव संचालन की गति को परखा जाए तो भाजपा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय किसान संघ ,बजरंग दल ,विश्व हिंदू परिषद के साथ ही पार्टी के कार्यकर्ता निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार रात दिन एक करते हुए मतदाताओं के बीच में राम मंदिर राष्ट्रवाद का संदेश देकर एक वर्ग विशेष को अपने साथ लाने का भरसक प्रयास करते रहे। वही सवर्ण जातियों का अधिकतम झुकाव तथा संगठन का मजबूत ढांचा वही पिछड़ी जातियों में वोटों की सेंधमारी के साथ ही दलित वोटों में पकड़ मजबूत करना जैसे चुनाव संचालन के तरीके अपनाकर पार्टी ने चुनाव को हमेशा रोचक मोड़ पर लाने का प्रयास किया। जिसका फायदा भी पार्टी को मिल सकता है। लेकिन इस बार अलग-अलग विचार वाले वर्गों का ध्रुवीकरण करने में पार्टी को उसके प्रयास के अनुसार सफलता मिलती दिखाई नहीं दी। फिर भी पूरे जनपद की चारों सीटों में किसी भी जगह पार्टी के प्रत्याशी कमजोर स्थिति में आते दिखाई नहीं दिए। अब समाजवादी पार्टी की रणनीति को देखा जाए तो उसने भी भाजपा से दो कदम आगे निकलकर चुनाव प्रचार की कमान इस बार युवाओं को देकर वक्त के हिसाब से अच्छी चाल चली। सपा के जिला अध्यक्ष नदीम अहमद फारुकी तथा युवा सपा नेता पूर्व ब्लाक प्रमुख डॉक्टर सुबोध यादव पूर्व जिला पंचायत सदस्य उमेश यादव उर्फ पिंटू एडवोकेट, मंदीप यादव एडवोकेट ,अवनीश पाल जैसे कई दर्जन युवाओं ने रात दिन एक कर चारों क्षेत्रों में परंपरागत वोट बैंक के साथ ही पिछड़ी जातियों तथा दलित वोटों में एकता का नारा बुलंद कर 2017 के चुनाव की अपेक्षा पार्टी की स्थिति काफी अच्छी करने का लगभग सफल प्रयास किया। जहां तक अमृतपुर विधानसभा की बात है वहां डॉक्टर सुबोध यादव ने एक सधी हुई नीति के अनुसार नरेंद्र सिंह को हराने के लिए सियासी जाल तैयार किया था। जिसमें फसकर सपा से बागी हुए नरेंद्र सिंह का बहुत बड़ा राजनैतिक नुकसान तो हुआ ही साथ ही भारतीय जनता पार्टी को भी इससे दो-चार होना पड़ा। यूं कहा जाए तो भाजपा, सपा, अपना दल ,महान दल ,आम आदमी पार्टी आदि सभी पार्टियों के स्टार प्रचारकों ने जिले में जनसभाएं आयोजित कर अपने पक्ष में माहौल बनाने का पूरा प्रयास किया। लेकिन मतदाता आखिर तक चुप्पी साधे रहा और पूरे चुनाव के दौरान प्रत्याशियों की भागदौड़ जारी रही। लेकिन पिछड़ी जातियों का काफी बड़ा वोट प्रतिशत भाजपा से अलग होना वही बसपा का कोई खास असर ना होने के कारण चारों विधानसभा सीटों पर मुकाबला दिलचस्प रहा। कौन जीतेगा किसे हार का सामना करना पड़ेगा। यह तो 10 मार्च को ही ज्ञात होगा। तब तक इंतजार करना पड़ेगा । लेकिन इतना तय है कि यहां की चारों सीटों पर भाजपा का कब्जा है। उसे वह बरकरार रख पाती है अथवा नहीं यह उसके लिए परीक्षा है तो वही विपक्ष के पास कुछ खोने के लिए नहीं है। इस बार के चुनाव में बदली परिस्थितियों को देखते हुए विपक्ष को कोई नुकसान होने वाला नहीं। यदि मतदाताओं की नाराजगी भाजपा पर भारी पड़ी तो 2017 के उलट होने वाले चुनाव नतीजे कोई नया गुल खिला दें, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी । फिलहाल तो हर पार्टी का नेता व कार्यकर्ता हार जीत का गुणा भाग लगाकर परिणामों को अपने ही पक्ष में देख रहा है। इतना ही नहीं पार्टी कार्यकर्ता अपने प्रत्याशियों को भी घटा बढ़ाकर जीत के आंकड़े देकर संतुष्ट करने में लगे हैं। किंतु ऊँट किस करवट बैठेगा ।अभी निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
मुख्य संपादक जयपाल सिंह यादव
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